ii हरि ॐ तत्सद ii

सदगुरु श्री शरदचंद्र स्वामी महाराज

जीवनगाथा

सदगुरु श्री शरदचंद्र स्वामी महाराज की आध्यात्मिक कठिन यात्रा !

जन्म की तारीख।  २५। १०। १९३१ (अश्विन शुद्ध चतुर्दशी)
महानिर्वाण तारीख।  १२। १२। २०१६ (शुक्लपक्ष चतुर्दशी)

                     शिरगांव के प्रसिद्ध भक्त शरदचंद्र मुरारराव शेट्ये उपाध्याय अप्पा यानि सभी के दत्तभक्त शरदचंद्र स्वामी।  उनका जन्म २५ अक्टूबर १९३१ (अश्विन शुद्ध चतुर्दशी) को शिरगांव में हुआ था। उनकी सातवीं कक्षा तक की पढ़ाई गांव में ही हुई। पिता किसान थे। इसके अलावा, एक माड़ी व्यवसाय भी था। स्वामी अन्य युवाओं की तरह उद्योग में नौकरी की तलाश में १९ साल की उम्र में २ दिसंबर १९५० को मुंबई चले गए। वहां उन्हें कुर्ला नगर पालिका में मुकादम के पद पर नौकरी मिल गई। 1966 के दौरान मुंबई में रहने का मैं नहीं था । उन्हें गाँव में श्री पवार द्वारा बनवाये गये मंदिर की सदैव याद आती रहती थी। साथ ही उन्हें शिरगांव की याद आने लगी। लेकिन जब उन्होंने मुंबई में घर-घर दत्त जयंती देखी तो उन्होंने भी यह उत्सव शुरू कर दिया। मुंबई में रहते हुए वह २६ साल तक लगातार गाणगापुर जाते रहे। वह हर साल दत्त उपस्थिति में वहां पूजा करते थे। वे स्वामी के दर्शन हेतु अक्कलकोट जाते थे। गाणगापुर में स्नान करते समय उनकी मुलाकात एक ब्राह्मण से हुई। उन्होंने उनका मार्गदर्शन किया।  “ओम तत्सद” मंत्र दिया।

                     शिरगाँव से शरदचन्द्र स्वामी की सुगंध सर्वत्र फैलने लगी। लेकिन कोई लत नहीं होने के कारण वे ईश्वर के चिंतन में लीन रहते थे, हर वर्ग के लोगों से बातचीत करते थे और उन्हें आध्यात्मिक अनुभव देते थे। श्रीवर्धन, खारेपाटन, मुंबई, चिपलून, मार्गथम्हाने और कई अन्य स्थानों से उनके अनुयायी और शिष्य स्वामी से मिलने और दर्शन करने आते थे। लोग अपने परिवार और विभिन्न समस्याओं के समाधान के लिए स्वामी के पास भक्ति भाव से आते। स्वामी जी  ने उनका पूर्ण मार्गदर्शन किया। संकेत के रूप में वे विभूति देते थे। उन्होंने कईयों की राह सुधारी है और उनके परिवार का भला किया है।  उन्होंने कभी किसी से कुछ नहीं मांगा।  रत्नप्रभा सीताराम शेट्ये खारेपाटन से आयी और स्वामी से मिलीं। उन्होंने स्वामी से अपने कुछ प्रश्न पूछे। स्वामी द्वारा दिए गए उत्तर उन्हें पूरी तरह स्वीकार्य थे और बड़ी भक्ति के साथ उन्होंने दत्त महाराज की मूर्ति स्वामी को उपहार में दी। यह मूर्ति ३ जून १९७१ को स्वामी द्वारा व्यक्तिगत रूप से स्थापित की गई थी।

                   स्वामी को सिद्धि प्राप्त थी। वह प्रत्येक गुरूवार को व्रत रखते थे। स्वामी श्रावण के प्रथम गुरुवार से २१ दिन का मौनव्रत रखते थे। १९५९ में जब वे मुम्बई में थे तभी से उन्होंने यह मौन व्रत रखा। यह मौनव्रत 7 दिनों तक होता था। रत्नागिरी-शिरगांव आने के बाद उन्होंने २१ दिनों तक इसका पालन करना शुरू कर दिया। २२ वें दिन मौनव्रत का समापन मनाया जाता।  वे स्वयं इस बात का ध्यान रखते थे कि यहां आने वाले सभी लोगों को महाप्रसाद ग्रहण किए बिना जाने न दिया जाए। इसके अलावा दत्त जयंती, श्री नृसिंह सरस्वती जयंती (पौष शुद्ध द्वितीया) और गुरु पूर्णिमा भी बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाये जाते थे। स्वामीजी के तीन बेटे हैं।  बिना किसी संतत्व के दिखावे के भगवा वस्त्र पहने शरदचंद्र स्वामी की छवि हमेशा एक आम आदमी की तरह सड़कों पर चलती हुई दिखाई देती थी। जो व्यक्ति उनकी वदनमूर्ती का दर्शन करता था उसके हृदय में निरंतर उत्साह और प्रसन्नता उत्पन्न होती। वे प्रतिदिन सुबह और शाम को ६ बजे शाम को दो बार आरती करते थे और दोपहर को ११:३०  बजे नैवेद्य आरती की जाती थी। ऐसी थी दिनचर्या। 

                निःस्वार्थ होने और सदैव दूसरों के हित के बारे में सोचने के कारण वे सदैव प्रसन्न रहते थे। सत्य ही विश्वास है यही  उनका संदेश है। शरदचंद्र स्वामी कहते हैं कि आलोचना से किसी को दुख नहीं होता, अगर लोग आपकी आलोचना करते हैं तो चिंता न करें, यह सोचकर कि आपको किसी भी बात से विचलित हुए बिना अपना भार भगवान को सौंप देना चाहिए और दुखी नहीं होना चाहिए। लेकिन उन्होंने बार-बार कहा कि हर किसी को अंदर ही अंदर ये सोचना जरूरी है कि उन्होंने ये आलोचना क्यों की।  भगवान मूर्ति में नहीं बल्कि हर इंसान के दिल में हैं। छूने की बजाय याद रखें।  मोच वाले पैर को एक बार ठीक किया जा सकता है। परन्तु मुख से निकला हुआ वचन पुनः प्राप्त नहीं किया जा सकता। भक्ति मोक्ष का साधन है। इस प्रकार उन्होंने अपने पास आने वाले भक्तों को शिक्षा दी।

१२ दिसंबर २०१६ को मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष चतुर्दशी को ८५ वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया।

  • संपर्क : श्री. राजेश शरदचंद्र शेट्ये
  • पत्ता
  • 512 (क) शिरगांव शेट्येवाडी जि.रत्नागिरी
  • मोबाईल क्र.
  • 989 026 1940