ii ॐ ॐकारा गुरुदेव दत्त ii

सदगुरु श्री रामचंद्र योगी महाराज

जीवनगाथा

सदगुरु श्री रामचंद्र योगी महाराज के जीवन पर एक संक्षिप्त आत्मानुभव

                 सदगुरु श्री रामचंद्र नारायण नकाशे दत्त सम्प्रदाय के 20वीं सदी के एक महान सदगुरु थे।  उनका जन्म २५ जुलाई १९४५ को गुरु पूर्णिमा के दिन रत्नागिरी जिले के राजापुर तालुका के निखरे गांव में हुआ था।  वहां से उन्होंने गुरुपरंपरा की भव्य पताका फहरायी।  वे बचपन से ही गीता और दत्तस्तोत्र से परिचित थे।  उन्होंने अपने जीवन के कुछ वर्ष राष्ट्रीय सेवा के लिए सेना में बिताए। उन्होंने ६००० से अधिक भक्ति गीत, कई अभंग, शरीर रचना विज्ञान पर कई महत्वपूर्ण जानकारी लिखी हैं।  उन्होंने महान ग्रंथ आत्मानुभव भी लिखा है।  इस किताब में उन्होंने अपनी जीवनी लिखी है।  ऐसे महान पुरुष ने अपना पूरा जीवन सादगी से जीया और आध्यात्मिकता का प्रसार किया ५ फरवरी २०१३ को वसंत पंचमी के दिन उन्होंने जलसमाधि लेकर अपना कार्य समाप्त किया।

                 सदगुरु श्री रामचंद्र महाराज के पिता श्री।  नारायण शेठ और उनकी माँ भागीरथी बाई एक संपन्न किसान परिवार से थे।  वह एक छोटे लेकिन कुशल व्यवसायी भी थे।  उन्हें व्यापार के सिलसिले में एक जगह से दूसरी जगह यात्रा करनी पड़ती थी। उसका घर धन-धान्य से भरपूर था। एक दिन उनका मोती बैल बीमार पड़ गया। बहुत दवाइयाँ कीं। लेकिन वह ठीक नहीं हो रहा था। वह व्यापार के सिलसिले में हर जगह यात्रा करते थे इसलिए कई लोगों ने उन्हें अलग-अलग सुझाव दिए। लेकिन मोती ठीक नहीं हुआ। दरअसल, ये एक तरह से उनके लिए इम्तिहान था।  लेकिन यह दत्त सम्प्रदाय के इतिहास की शुरुआत थी।

                 श्रीमान नारायण को किसीने सुझाव दिया कि पांगरे गांव में टेम्बे नाम के ब्राह्मण हैं जो दवा देते हैं। एक दिन सुबह चार बजे वह उसके पास दवा लाने गये। सामने का दरवाज़ा खटखटाया। लेकिन अंदर से कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। अंदर से गुनगुनाहट की आवाज आ रही थी।   श्री नारायण पीछे के दरवाजे पर चले गए। उन्होंने दरवाजा खटखटाया तो वह अपने आप खुल गया। वह धीरे-धीरे आगे बढे और पूछा कि क्या यह कोई है ? देखे तो क्या, बड़ा बंदर।  जिसका शरीर, बाल चमक रहे थे और वह किताब पढ़ रहा था। श्री नारायण भय और सदमे से कांप रहें थे । कुछ ही समय में वह महान वानर हनुमानजी अपने मूल रूप में वापस गए। वह थे सदगुरु श्री शिवानंद टेम्बे स्वामी। जिन्हें सदगुरु श्री वासुदेवानंद टेम्बे स्वामी और दूसरे सदगुरु श्री सिद्धारूढ़ स्वामी का आशीर्वाद था। ऐसे हैं सदगुरु श्री शिवानन्द स्वामी अर्थात् साक्षात् हनुमन्त।  श्री नारायण की ओर मुस्कुराकर देखा और किसीको मत बताना कहकर उसे दवा देकर विदा कर दिया। मोती बैल उसी दिन ठीक हो गये। तब से श्रीमान नारायण नियमित रूप से सदगुरु के पास जाने लगे।

                एक दिन सदगुरु श्री शिवानन्द स्वामी ने उन्हें अपने पास बुलाया और कहा, तुम्हारे घर एक महान अधिकारी का जन्म होगा। जहाँ से दत्त परम्परा का महान मार्ग चलने वाला है। उस अधिकारी के संतान के रूप में महान अवतार कार्य होगा। आप गुरुचरित्र का पाठ करें।  कोई नियम नहीं है। एक ही नियम, विश्वास से उसका पालन करो। सदगुरु शिवानंद स्वामी के आदेश पर श्री नारायणजी ने नियमित रूप से श्री गुरु चरित्र का पाठ करना शुरू कर दिया। वे रात के समय खेतों में टॉर्च या लैंप की रोशनी में पढ़ते थे। जंगल में, व्यापार करते हुए, जहाँ भी रहे, पढ़ते रहे। इसमें कोई तोड़ नहीं था।  इस प्रकार भागीरथी बाई के दिन बीत गए और गुरु पूर्णिमा की शाम को सूर्यास्त के समय एक दिव्य बालक का जन्म हुआ। उनका सवाल था कि इसे क्या नाम दिया जाए ?  इतिहास में श्री नारायण के चचेरे भाई रामचन्द्र योगी थे। वे जंगल में रहते थे। कई जानवरों को वह हाथ उठाकर बुलाते और उनसे घंटों बातें करते थे । क्यूंकि उनके कई चमत्कार ज्ञात थे, इसलिए शिशु का नाम स्वयं रामचन्द्र योगी के नाम पर रामचंद्र रखा गया। कई लोग इन्हें बबन भी कहते हैं। एक बच्चे के रूप में, वह गीता और दत्तस्तोत्र के ज्ञानी थे।

                 सदगुरु श्री रामचंद्र महाराज बड़े होने लगे। श्री नारायण का कारोबार पूरी तरह से बंद हो गया। गरीबी घर आ गई। परिवार का भरण-पोषण करने के लिए खेती थी। लेकिन कपड़े, बाहर का कुछ भी मिल नहीं रहा था। पैसा नहीं था। महाराज गांव के बाबल्या नामक बालक के फटे हुए कपड़ों की लंगोटी बनाकर स्कूल जाते थे। एक दिन इस बाबल्या ने उनको  चिढ़ाया तो  महाराज को बहुत दुख हुआ।  उन्हें अपने गरीबी से घिन आयी। उन्होंने लंगोट उतारकर लड़के को लौटा दी और चुप हो गये। बाबल्या ने उन्हें फिरसे  चिढ़ाया।  रामचंद्र महाराज, जो अब शांत थे, उन्होंने उग्र रूप धारण कर लिया और लड़के को पीटा। जो वह स्कूल से वापस आये वे दोबारा उस स्कूल में गए ही नहीं। शाम को बड़े-बुजुर्गों में झगड़ा हो गया तो श्री नारायण ने महाराज से पूछा, आपने ऐसा क्यों किया ? महाराज ने सब कुछ बताया। 

                 सदगुरु श्री रामचंद्र महाराज अपना अधिक से अधिक समय जप और भजन में व्यतीत करने लगे। श्री नारायण जी को उनके कृषि कार्य में योगदान देने लगे। वह सदगुरु श्री शिवानंद स्वामी से मिलने जाते थे। सदगुरु श्री शिवानंद स्वामी सदैव सदगुरु श्री रामचंद्र महाराज के साथ खड़े रहे। प्रत्यय सदैव आने लगा। दरअसल, हनुमंतजी कई फैसलों में उनके साथ खड़े रहे हैं, यह सब खुद सदगुरु श्री रामचन्द्र महाराज ने आत्मानुभव नामक ग्रंथ में लिखा है। 

                 सदगुरु श्री रामचंद्र महाराज काम के सिलसिले में मुम्बई गये। एक दिन हनुमंत ने उन्हें सुबह जल्दी उठाया और कहा, “क्या सोया है ? उठ और कुलाबा जा।” महाराज उठे और कुलाबा पहुँचे। देखा तो वहां सेना की भर्ती चल रही थी। महाराज वहां गये। उन्हें सेना में लांसनायक सूबेदार के रूप में चुना गया और राष्ट्रीय सेवा में शामिल कर लिया गया। वे जहां भी स्थानांतरित होते थे, वहां छोटे दत्त मंदिर बनाते थे और अपना ऑफ-ड्यूटी समय साधना में बिताते थे। दत्त मंदिर उन्हें खोजने का एकमात्र स्थान है।

                  इस यात्रा के दौरान उनकी माता भागीरथी का निधन हो गया और एक वर्ष के भीतर ही उनके पिता श्री नारायण का भी निधन हो गया। इसका एहसास उन्हें सीमा पर हुआ।  अचानक महाराज को चक्कर आ गया और वे जमीन पर गिर पड़े। महाराज ने स्वयं को इस कष्ट से उबारा। वे आगे बढे। उनकी शादी हो गयी। शादी के एक महीने बाद वह वापस सेना में चले गए। यहां उनके भाइयों और उनकी पत्नियों ने महाराज की पत्नी (माँ सुलोचना) का जीना मुश्किल कर दिया। झूठे आरोपों के पत्र लिखकर उनके पत्नी को सुनाकर महाराज के पास भेजते थे। इसका कारण यह था कि महाराज के भाइयों की पत्नियाँ चाहती थीं कि वह उनकी बहन से विवाह करें। महाराज ने सबकी इच्छा के विरूद्ध माता सुलोचना से विवाह किया था। माता सुलोचना ने बचपन से ही कठोर व्रत का पालन किया। उन्होंने अपने भाई-बहनों का अत्यधिक गरीबी में पाला। उन्होंने अपनी पढ़ाई छोड़ दी और अपने भाई-बहनों की देखभाल करने लगे। उन्हें भगवान पर बहुत प्यार, आस्था और भरोसा था। एक ओर, महाराज को कई शरारती पत्र भेजकर उनके मन में अपनी पत्नी के लिए नफरत पैदा करके उनकी पत्नी को छोड़ने के लिए प्रेरित करने का यह प्रयास। तो दूसरी ओर, खाना नहीं देते थे, जितना हो सके मारते, प्रताड़ित करते, ताकि वह घर छोड़ दे।  ऐसी स्थिति निर्मित कर दी।  लेकिन माता सुलोचना दृढ़ रहीं। 

                  महाराज की राष्ट्रसेवा पूर्ण हुई । अब अगले कार्य के लिए निकलें, ऐसा महाबली हनुमान जी ने आदेश दिया। महाराज इस्तीफा देकर गाँव आ गये। वह अपने परिवार के साथ रत्नागिरी के लिए रवाना हो गए। वे सड़क पर चने और मूंगफली बेचते थे। कभी शरबत बेचने लगे, कभी भेल, कभी सब्जियाँ। इस दौरान उनको  पहली बेटी सुमन, दूसरे बेटे सुरेश (दादा), तीसरी बेटी सुशीला हुईं। कुछ समय तक उन्होंने लॉन्च पर काम किया। स्टेट बैंक में सिक्योरिटी के तौर पर काम किया। बाद में उन्हें एसटी कॉर्पोरेशन में सिक्योरिटी की नौकरी मिल गई।

                   इसी बीच मां सुलोचना की तबीयत खराब हो गई।  कुछ भी करने के बाद भी राहत नहीं मिली।  सभी डॉक्टर कर लिए। महाराज को लोगों का कहना-समझाना ठीक नहीं लगा। ऐसे ही उनके दोस्त ने कहा, शिरगांव में शरदचंद्र स्वामी हैं, उनके पास जाओ। महाराज शिरगांव पहुंचे।  वहाँ एक छोटा सा दत्त मंदिर था। उस स्थान पर बहुत से लोग बैठे हुए थे और सामने भगवा वस्त्र पहने हुए और बाल खुले हुए एक दिव्य व्यक्ति बैठा हुआ था। महाराज उस 

भीड़ में बैठ गये और सामने वाले ने आवाज लगाई। नकाशे जहाँ बैठे हो वहाँ से इधर आओ। महाराज पास आये। हाथ जोड़े, प्रणाम किया।  तभी वह व्यक्ति खड़ा हुआ और पीठ पर हाथ मारते हुए बोला अरे हम एक ही परिवार के हैं। उन्होंने एक छोटासा उपाय बताया और महाराज को वापस भेजा। माता सुलोचना दर्द से उबर गईं और महाराज शिरगांव जाने लगे । ये दिव्य पुरुष हैं सदगुरु श्री शरदचंद्र स्वामी। जिसे सदगुरु श्री मनृसिंह सरस्वती महाराज ने दर्शन देकर उनका उद्धार किया था। क्या संयोग था, किसी न किसी तरह दत्त महाराज फिर दरवाजे पर खड़े थे। श्री नारायण को जो गुरु मिले वे शिवानंद स्वामी थे, जो वास्तव में हनुमंत थे, जो हमेशा सदगुरु श्री रामचन्द्र महाराज के पक्ष में खड़े रहते थे।

 उनके गुरु सदगुरु वासुदेवानंद स्वामी थे। जिन पर सदगुरु श्री नृसिंह सरस्वती दत्त महाराज की असीम कृपा थी और अब सदगुरु श्री शरदचंद्र स्वामी महाराज के रूप में पुनः वही अनुभूति होने लगी।

                      सदगुरु श्री रामचंद्र महाराज ने शरदचंद्र स्वामी से गुरु दीक्षा मांगी। फिर उन्होंने कहा, अगर मुझे आदेश मिलेगा तो मैं तुम्हें दीक्षा दूंगा।  श्रावण में जब मैं मौन रहूँगा, तब तुम्हारे लिये आज्ञा माँगूँगा। श्रावण में मौनव्रत प्रारम्भ हुआ। अंतिम दिन महाराज ने सदगुरु के दर्शन किये। लेकिन सदगुरु शरदचंद्र स्वामी ने महाराज से कहा, आपका अधिकार महान है। मैं तुम्हें गुरु दीक्षा नहीं दे सकता। महाराज निराश हो गये। उन्होंने कहा, मैंने तुम्हें गुरुस्थानी माना है। मैं एकलव के समान तुम्हारी पूजा करूंगा और यह कहके महाराज वहां से चले गए। फिर 21 साल बाद रामचंद्र महाराज श्री शरदचंद्र स्वामी जी से मिले।

                       सदगुरु श्री रामचंद्र महाराज को घृणा हुई थी। कई बार वह परिवार छोड़कर नरसोबा की वाडी में जाते थे। लेकिन हमेशा हनुमान जी उन्हें थप्पड़ लगाकर वापस भेज देते थे और कहते थे कि तुम्हारा काम अभी बाकी है। महाराजा ने २१ गुरूवार का संकल्प त्याग दिया। महाराज हर गुरुवार को नरसोबा वाडी जाते थे। पहले चार गुरुवार अच्छे बीते। फिर वह बीमार पड़ गये। वे बुधवार को ठीक होते और नरसोबा वाडी जाते। हमेशा गुरुवार को दर्शन लेने के बाद, वह शुक्रवार को घर आते थे और फिर से बीमार हो जाते थे और बिस्तर पर लेट जाते थे। डॉक्टरों को बीमारी पता नहीं चल रही थी।  पैसे ख़त्म होने पर आख़िरकार माँ सुलोचना ने घर के चाय के बर्तन बेच दिए। लेकिन महाराजा के स्वास्थ्य में कोई सुधार नहीं हुआ। पिछले गुरुवार को नृसिंहवाडी पहुंचे। उन्होंने दर्शन किये।  रुद्राक्ष की माला जाप के लिए हात में ली और मन में विचार आया कि माला तो ले लि हात में लेकिन कौन से गुरुमंत्र का जाप करूंगा? यह दु:ख मन में लिए वह घर पहुंचे। अब उनका रोग भाग गया था। यही उनकी परीक्षा थी।  वे इस परीक्षा में पारित हो गए। बीमारी चली गयी थी।  महाराज ने पूजा की और सो गये।  मन में एक उदासी थी कि    गुरुमंत्र क्या है ? सुबह चार बजे उन्हें एक स्वप्न आया।  दिव्य तेजस्वी दत्तात्रेय ने दर्शन दिये। तुम क्यों चिंतित हो मैं आपका गुरु हूँ। ll ॐ नमो जय गुरुदेव दत्त ll आपका गुरुमंत्र है। इसका जाप करो।  मैं तुम्हारे साथ हूँ। महाराज ll ॐ नमो जय गुरुदेव दत्त ll महामंत्र का जाप करते वक़्त जोर से चिल्लाते हुए उठ बैठे। उनकी आंखों से आंसू बह रहे थे।  माता सुलोचना ने पूछा, क्या हुआ ? उन्होंने कहा, दत्त महाराज ने मुझे दर्शन दिये।  मुझे एक शिष्य के रूप में स्वीकार किया है। मैं धन्य हो गया।  मुझे गुरुमंत्र मिल गया। 

                         सदगुरु श्री रामचंद्र महाराज का राजपथ खुल गया। मुख में निरंतर जप, हृदय में भक्ति होने लगी। उन्होंने कई पुस्तकों के अध्ययन और अनुभव से अपनी आत्मकथा “आत्मानुभव” लिखी। जिसमें उनके द्वारा अनुभव किए गए और जीए गए हर पल को इसमें प्रस्तुत किया। अनेक अभंग लिखे। जब यह यात्रा चल रही थी तो उन्होंने अपना बारह वर्षीय संकल्प किया। दिन में एक समय का भोजन करते थे।  सुबह चार बजे उठते थे।  पूजा पाठ साधना चल रही थी।  खास बात यह है कि कोई नहीं जानता था कि वे कौन सी साधना करते थे, कौन सा मंत्र जाप है। ऐसी थी मोक्ष के अंतिम लक्ष्य की ओर उनकी यात्रा। क्यूंकि उनका रहन-सहन सादा था, इसलिए देखने वाले को पता ही नहीं चल पाता था कि वे महायोगी हैं। वर्ष 1995 में उनकी बारह वर्ष की तपस्या पूर्ण हुई। वे संन्यास की दीक्षा लेकर संसार छोड़कर दत्त के बनना चाहते थे, उन्होंने सदगुरु श्री शरदचंद्र स्वामी को एक पत्र लिखा। मुझे दीक्षा चाहिए।  21 साल बाद गुरु शिष्य मिले। तब सदगुरु शरदचंद्र स्वामी ने कहा, अब तो तुम बहुत आगे निकल गये हो। आप मेरे स्वामी होंगे।  फिर भी देखता हूं कि मौनव्रत में आदेश मिलता है या नहीं। फिर श्रावण मास के अंतिम दिन महाराज सदगुरु श्री शरदचंद्र स्वामी से मिलने गये। तब उन्होंने कहा। मुझे ऐसा कोई आदेश नहीं मिला।  क्योंकि आप महान योगी हैं। आपने गुरु के रूप में 

मेरी सेवा की है। फिर तुम दो केसरी वस्त्र और दो केसरी थैलियां ले आना। नियत दिन पर महाराज दो थैले और दो वस्त्र लेकर मिलने गये। सदगुरु श्री शरदचंद्र स्वामी ने स्वयं महाराज से एक वस्त्र और एक थैली ली। इसे दत्त महाराज के सामने रखकर उन्होंने प्रार्थना करके अपने ऊपर पहन लि और फिर रामचंद्र महाराज को एक बैग और लुंगी देते हुए कहा, दत्त महाराज ने आपको साक्षात् गुरुमंत्र दिया है तो में और क्या देता ? परन्तु आप गृह-संसार को छोड़ नहीं सकेंगे। आप एक साधु हैं।  लेकिन दत्तमहाराज का आदेश है कि जब तक आपके बच्चे व्यवस्थित नहीं हो जाते, आप घर से बाहर नहीं छोड़ सकते। आपको संन्यास व्रत लेकर चलना चाहिए।  महाराजा को ऐसा लगा मानो उनका अंगूठा काट दिया गया हो। लेकिन सदगुरु श्री शरदचंद्र स्वामी ने भविष्य की घटनाएँ देख ली थीं। महाराज घर आये।  शाम का वक्त था। वह दत्त महाराज की ओर देख रहा थे। आँखों से गंगा छलक रही थी। महाराज के मुँह से ये शब्द निकले।  “अब मैं तुमसे मिलने नहीं आऊँगा। तुम मुझसे मिलने आओ”। यहीं से असली परीक्षा शुरू हुई।  तब से, उन्होंने नरसोबा वाडी को जाना बंद कर दिया। इसका कारण यह है कि महाराज सदैव प्रत्येक माह की पूर्णिमा को नरसोबा वाडी जाते थे।

                          सदगुरु श्री रामचन्द्र महाराज की चार संतानों में सबसे बड़े पुत्र सुरेश (दादा) की शादी हो गई और दूसरे पुत्र संतोष यानि हमारे आज के सदगुरु श्री स्वामी ने अपनी शिक्षा पूरी की और डिटर्जेंट साबुन बनाने का व्यवसाय शुरू किया। इसी बीच उनके गांव के कुछ लोगों ने उन्हें परेशान करना शुरू कर दिया।  ग्रामीणों के जीवन में खलबली मच गई। जब एक गरीब परिवार का लड़का फैक्ट्री शुरू करता है तो इसका क्या मतलब होता है ? उन्होंने ग्राम पंचायत को लेकर परेशान करने की कोशिश की।  लेकिन जिला उद्योग केंद्र के रत्नागिरी के सूर्यवंशी साहब स्वामी के साथ खड़े रहे। सभी कानूनी अनुमतियाँ बिना किसी रिश्वत के प्राप्त करवा दी। बाद में गांव के कुछ लोगों ने बैंकों पर दबाव डालकर स्वामी जी का कर्ज़ रुकवा दिया, जिससे स्वामी आर्थिक संकट का सामना करना पढ़े । हाथ में पैसे नहीं था।  महाराज के सबसे बड़े बेटे सुरेश (दादा) ने घर छोड़ दिया। स्वामी के साथ एक ही वर्ष में नौ दुर्घटनाएँ हुईं। ऐसे में कर्ज का पहाड़ खड़ा हो गया। कारोबार बंद हुआ था।  अर्थव्यवस्था पूरी तरह अस्त-व्यस्त थी। दादा फिर घर आ गए थे।  वह रिक्शा चलाकर घर चला रहा थे। रामचंद्र महाराज और बच्चों ने बहुत कोशिश की। लेकिन कर्ज की समस्या हल नहीं हुई।  बैंक को बता रहा थे, आप व्यवसाय हाट में ले, नीलामी करें और समस्या का समाधान करें। लेकिन बैंकर्स भी ऐसा कुछ करने को तैयार नहीं थे।  एक दिन महाराज ने बुधवार के दिन निर्वाण आराधना का संकल्प हात में लिया। दत्त मुझे इससे मुक्त करें, नहीं तो मैं उनके चरणों से मुक्त हो जाऊंगा। उन्होंने अन्न की देवी को प्रणाम किया। गुरुवार की सुबह तीन बार जल ग्रहण किया और निर्वाण उपासना शुरू की।  शुक्रवार बीत गया।  वे किसी से बात नहीं करते थे।  बस दत्त महाराज को देखता रहते थे। मानो दत्त महाराज से उनका कोई बड़ा झगड़ा हो रहा है।  न खाना, न पानी, न कुछ। शनिवार को नित्य पूजा की और अपनी कुर्सी पर बैठे थे । दत्त महाराज के सामने एक जिद्दी योगी बैठे था । शाम चार बजे महाराज के कानों में एक आवाज आई। “देखो क्या होने वाला है।  आप अपना संकल्प वापस ले लीजिये। ” यह आदेश वास्तव में दत्तात्रेय का था। महाराज दत्त ने महाराज के सामने बैठकर संकल्प वापस ले लिया और विश्वास के साथ सब कुछ फिर से सुचारू हो गया।

                        सदगुरु श्री रामचंद्र महाराज प्रतिदिन की भाँति गुरुवार को प्रातः 4 बजे उठे। उनकी पूजा-पाठ की दिनचर्या शुरू हो गई।  साढ़े पांच बजे काकड़ आरती शुरू हुई और अचानक महाराज खाली हाथ जमीन पर गिर पड़े। परिवार के सभी सदस्य दौड़ पड़े। महाराज एकदम स्तब्ध थे। दादा और स्वामी महाराज नजदीकी अस्पताल गये। डॉक्टर ने जांच करने के बाद उन्हें राजापुर ले जाने को कहा। जब महाराज की रिक्शा राजापुर के दोनीवडे गांव की ओर आ रहे थे, तब स्वामी जी ने अपनी आंखें बंद कर लीं और श्री मनृसिंह सरस्वती महाराज के दर्शन किए। उसने उनसे प्रार्थना की और आश्चर्यचकित हुए कि रामचंद्र महाराज पहले ही पूर्णा घाट के रास्ते पर चल पड़े थे। राजापुर डॉक्टर के पास गए और उन्होंने उसका चेकअप किया और कहा, तुम्हें कोई दिक्कत नहीं है, तुम घर जा सकते हो। सर्वदत्त महाराज की कृपा है।

                         वर्ष २००० में ६ जुलाई, गुरुवार, आषाढ़ पंचमी के दिन सदगुरु श्री स्वामी ने  II ॐ गुरुवे नमः ॥ मंत्र के 21 हजार जप का संकल्प जारी किया। शाम सात बजे उनका २१ हजार जप पूरा हुआ। उनके मुँह से जोर से “ॐ ” का उच्चारण हो रहा था और वह उन्माद की स्थिति में आ गए। स्वामी जी का स्वरूप बिल्कुल बदल गया था। स्वामी जी ने अपने दाहिने हाथ से रामचंद्र महाराज का दाहिना हाथ मजबूती से पकड़ रखा था और ॐ की ध्वनि के साथ महाराज को देख रहे थे। स्वामी जी ने पूछा, “क्या तुम मुझे पहचानते हो?” यह प्रश्न पूछते ही महाराज ने कहा, मैं तुम्हें नहीं पहचानूंगा तो और कौन पहचानेगा। स्वामी ने पूछा, “कहो, क्या चाहते हो ?” ये शब्द कानों में पड़ते ही महाराज सचेत हो गये। एक क्षण में महाराज ने सोचा, यह अब मेरा पुत्र नहीं रहा। ये तूफान उठा हुआ है।  यह हमें अगले कार्य के लिए छोड़ देगा। इसलिए उन्होंने पाँच प्रतिज्ञाएँ माँगीं और स्वामी जी के जीवन का मार्ग निर्धारित किया। पहला वादा, तुम ये ज़मीन नहीं छोड़ सकते।  यह आपकी कर्मभूमि है और जहां आप बैठें वही आपकी समाधि होनी चाहिए। तुम्हें सदैव यहीं रहना चाहिए। दूसरा वचन, इस स्थान का प्रति

गाणगापुर होना चाहिए। तीसरा वादा, चमत्कार के बजाय ज्ञान का केंद्र होना चाहिए। चौथा, संसार करते परमार्थ की ओर बढ़ें। पाँचवाँ, दत्त के चरण की महिमा अष्टतीर्थ हो। स्वामी जी ने महाराज से वादा किया और स्वामी जी की यात्रा तूफान की तरह शुरू हो गई।

                         सदगुरु श्री रामचन्द्र महाराज के प्रथम एवं अंतिम शिष्य हमारे सदगुरु श्री स्वामी जी हैं। गांव में गांगेश्वर का मंदिर है। स्वामी जी उस मंदिर में जाकर फूल चढ़ाकर और अगरबत्ती जलाकर पूजा करते थे। वहां सफाई करते थे।  लेकिन गांव के लोगों को लगा कि यह गलत है। उन्होंने महाराज और उनके परिवार को परेशान करना शुरू कर दिया। उन्होंने स्वामीजी, दादा और महाराज को मंदिर में आमंत्रित किया। गांव वालों ने भगवान से नौ बार पूछा कि क्या यह गलती है। लेकिन भगवान नहीं कह रहे थे।  बाद में शंकर नामक व्यक्ति ने भगवान से बात की और ग्रामीणों की बात पर सहमति जताई।  फिर, योजना के अनुसार, गाँव के सामने नाटक शुरू हुआ। महाराज ने कहा, मैं स्वीकार नहीं करूंगा। मैंने तो बस भक्ति की।  हम घंटा पकड़ते हैं, तो सभी ने विरोध किया। तब महाराज ने कहा, यदि तुमने शरीर को घास से बांधकर आग लगाने का निश्चय किया है तो कृपया ऐसा करो। मैं आपसे न्याय करवाना नहीं चाहता। मेरे पास कष्ट सहने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। अब ये गांगेश्वर मुझे न्याय दिलाएगा। जब तक गांगेश्वर मुझे न्याय नहीं देता हम गांगेश्वर के मंदिर की सीढ़ियाँ नहीं चढ़ेंगे। सारा गाँव मंदिर से चला गया। स्वामीजी, दादा और महाराज ने गांगेश्वर को अंतिम प्रणाम किया और मंदिर से चले गये। महाराज ने आखिरी बार गांगेश्वर के दर्शन नम आँखों से किये थे। उसके बाद गांगेश्वर और उनकी मुलाकात कभी नहीं हुई।  यह घटना इ। स २००१ में हुई।  गाँव से बाहर निकाल दिया। अगर कोई उनके घर आता तो उस पर जुर्माना लगाया जाता था।  महाराज पर अनेक प्रकार से दबाव बनाने का प्रयास किया गया। लेकिन जब उन्हें पता चला कि महाराज पर कहीं से कोई दबाव नहीं आ रहा है तो उन्होंने बदमाशी की कोशिश की।  अखबार, टीवी पर फर्जी खबरें दी गईं।  जैसे बहुत बड़े अपराधी हों।  इस तरह पुलिस से शिकायतें की गई।  जैसे वे गांवों में आतंक मचा रहे हैं।  जब पुलिस की नजर इस पर पड़ी तो उन्होंने शुरू से ही धैर्यपूर्वक पक्ष लिया। गांव में पहले महाराज के पास एक कुआं था। उस कुएं पर झूठा मामला दर्ज किया गया।  इसे महाराज ने हटा दिया। ग्राम पंचायत और कोर्ट में सबूत मिटाने की कोशिश की गई।  गांव की सड़कें ही नहीं, पगडंडियां भी बंद हो गईं। ग्राम पंचायत की ओर से जलापूर्ति भी बंद कर दी गई। वे मठ में आने वाले लोगों की कारें चुरा लेते थे, उन्हें धमकाते थे और भगा देते थे। महाराज जरा भी विचलित नहीं हुए। उन्होंने मौन रहकर अपना भक्ति मार्ग जारी रखा।

                          सदगुरु श्री रामचंद्र महाराज ने अनेक संस्कार बनाये। चमत्कारों के नमस्कार में उन्हें हमेशा स्वार्थ की भावना नजर आती थी। उन्होंने कभी भी अपने दिव्य ज्ञान की प्राप्ति का प्रदर्शन नहीं किया और न ही इसके बारे में कभी बात की। महाराज सदैव कहा करते थे, भक्ति साधारण भोलापन नहीं, मधुकोश है। सदगुरु महाराज को संसार से परमार्थ की प्राप्ति हुई। भक्ति सर्वोत्तम साधना है।  दत्त नाम में मोक्ष है।  ये सबको बताया ।  सदगुरु श्री दत्तात्रेय की असीम भक्ति और भक्ति की शक्ति। भक्ति से असाधारण ज्ञान की स्वीकृति | ऐसे दत्त प्राप्ति होती है यह देखने मिला।  

                           १५ फरवरी २०१३ को वसंत पंचमी के दिन प्रातः लगभग सात बजे सदगुरु श्री रामचंद्र महाराज पास के बांध में गहरे पानी में जाकर बैठ गये और जल समाधि ले ली, यहीं पर उनका महापर्व समाप्त हुआ।

 उस दिन वह रोज की तरह सुबह चार बजे उठे।  एक पत्र लिखा। इसमें उन्होंने लिखा, ”मैं जल समाधि ले रहा हूं। ” ऐसा इसलिए था क्योंकि गांवों में कुछ लोग पीठ पीछे स्वामी जी  को परेशान करेंगे। श्री रामचंद्र महाराज को अगले दिन शाम तक भक्तों के दर्शनार्थ रखा गया। नरसोबावाड़ी के ब्राम्हणोंने भूमिगत समाधि समारोह किया। ब्राह्मण घर आये। उन्होंने भक्तिमय माहौल देखकर कहा, हम आपके साथ यहीं रहेंगे। उन्हें महाराजा के ही कमरे में ठहराया गया। रात्रि भोजन के बाद वे सोने के लिए महाराजा के कमरे में चले गये। जब वे बैठे थे तो उन्होंने सचमुच देखा कि महाराज उनके बिस्तर पर बैठे हैं। ब्राम्हणोंने उन्हें प्रणाम किया।  महाराज ने उन्हें आशीर्वाद दिया और अन्तर्धान हो गये। समाधि के बारहवें दिन श्री नारायण का आह्वान प्रारम्भ हुआ। महाराज की फोटो उनके साधना की जगह पर लगी थी।  जैसे-जैसे मंत्र उपचार चल रहे थे वैसे उनके भस्मांकित पैर के निशान पाट पर छप  गए और कई लोगों को यह विश्वास हो गया कि सदगुरु श्री रामचंद्र महाराज एक महायोगी हैं।